सदियों से खडा़ मेहरानगढ़ दुर्ग, दलित अमर शहीद राजाराम मेघवाल की शहीदी की कहानी
राजस्थान की सुदूरक्षेत्र में सूर्यनगरी जोधपुर में राजा रजवाडो़ के जमाने से तालाबो, किलो, मंदिरो व यज्ञो में ज्योतिषियों की सलाह पर दलितो को जिंदा गाड़कर और कई दफा जलाकर बलि देने की रुढिवादी परम्पराएं थी ! ऐसे हम अनेको किस्से सुनते आए है, जो वास्तविकता के तौर देखे जा सकते है !
वैसा ही एक नाम है - अमर शहीद राजा राम मेघवाल
आईए जानते है - राजस्थान के कई राजा रजवाडे़ हुए है उन सबका अलग अलग इतिहास रहा है, ऐसा ही गगनचुंबी विशाल किले मेहरानगढ की नींव में राजाराम मेघवाल को 12 मई 1459 को उसमें नींव में अपने प्राण दिए ! साथ ही उनके पिता मोहणसी व माता केसर को भी उसी वक्त नींव में चुन दिया गया !
राजाराम के इस महान बलिदान को जातिवादी मानसिकता के इतिहासकारों ने सिर्फ डेढ़ लाइन में समेट लिया। जहां राजाराम की बलि दी गई थी उस स्थान के ऊपर विशाल किले का खजाना व नक्कारखाने वाला भाग स्थित है। किले में रोजाना हजारों देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं लेकिन उन्हें उस लोमहर्षक घटना के बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है। "एक दीवार पर एक छोटा-सा पत्थर जरूर चिपकाया गया है जो किसी पर्यटक को नजर ही नहीं आता है" उस पत्थर पर धुंधले अक्षरों में राजाराम की शहादत की तारीख खुदी हुई है। राजाराम मेघवंशी की शहादत जैसी घटनाओं की अनगिनत कहानियां राजस्थान के हर कोने में बिखरी पड़ी हैं। महाराणा प्रताप की सेना में लड़ने वाले दलित आदिवासियों का महान योगदान रहा है। विदेशी आक्रमणकारियों की गुलामी से देश को आजाद कराने में न जाने कितने दलितों आदिवासियों ने कुर्बानी दी लेकिन इतिहास में उनका कहीं भी नामोनिशान नहीं है।
त्याग और बलिदान का ऐसा अनूठा उदाहरण इतिहास में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। 22 फरवरी 1890 को इंग्लैंड के राजकुमार प्रिन्स एल्बर्ट विक्टर आँफ वेल्स भारत यात्रा करते जोधपुर आए तब स्टेट की ओर से 'गाइड टू जोधपुर' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थीं। उसमें राजाराम के बलिदान का वर्णन हैं….."जब जोधपुर दुर्ग की नींव 1459 ई. में रखी गई तब शुभ शकुन तथा स्थायित्व के लिए राजिया भांबी नाम का पुरूष जिन्दा चुना गया। जहाँ पर खजाना और नक्कारखाना की इमारतें बनी हुई हैं।" ^ए शोर्ट एकाउण्ट आँफ जोधपुर' नामक सरकारी पुस्तक जो 1927 में छपी थी उसमें भी राजाराम मेघवाल के बलिदान का ही वर्णन हैं। शहीद राजाराम के बारे में सवर्ण इतिहासकारों की यहीं मानसिकता रही हैं। अधिकतर जगह राजिया भाम्बी लिखा तो कुछ लेखकों ने राजिया चमार, राजिया हरिजन भी लिखकर अपनी संकीर्ण जातीवादी मानसिकता का परिचय दिया है। जब भी जातिवादी दलित विरोधी सवर्ण इस नर बलि की चर्चा करते हैं तो राजाराम के लिए ढेढ शब्द का प्रयोग करने से भी गुरेज नहीं करते हैं। प्रायः देखा गया है कि किसी व्यक्ति को पीठ पीछे कुछ भी कहें लेकिन लिखित चर्चा तो दिखावे के लिए ही सही, सम्मानजनक भाषा का प्रयोग किया जाता हैं। लेकिन राजाराम जैसे महान बलिदान के लिए तो वह भी नसीब नहीं हुआ। राजाराम के वंशजों से मिली जानकारी के अनुसार मेहरानगढ़ किले में जिस स्थान पर राजाराम की बलि दी गई थी वहां दीवार पर एक छोटा-सा पत्थर चिपकाया गया था उस पर भी "राजिया भाम्बी" उकेरा हुआ था। इसे हाल ही के कुछ वर्ष पहले पत्थर के एक छोटे-से टुकड़े पर "राजाराम मेघवाल" उकेरा गया हैं।
राजाराम के पूर्वज गढ़ देरासर या देवीकोट (जैसलमेर) से गुगरवाला व बाद में गुगरवाला से शायपुरा (घोड़ा चौक) जोधपुर आकर बसे थे। आज डेरिया गांव जोधपुर में लगभग पांच सौ परिवार हैं जिसमें दो सौ परिवार मेघवालों गौत्र कड़ेला के हैं। लगभग 60-65 परिवारों में ट्यूबवैल खुदे हुये हैं तथा अच्छी खेती होती हैं। जोधपुर से सटे इलाकों में विश्व प्रसिद्ध जोधपुरी पत्थर का अच्छा व्यवसाय हैं। यहां डेरिया में भी 39 साल पहले मेघवाल परिवार खानों के मालिक थे लेकिन भोले भाम्बी समय की रफ्तार में पीछे रह गये। सारी आर्थिक सम्पन्नता धार्मिक कर्मकांड़ो व कुरूतियों की भेंट चढ़ गई और आज हालत बिल्कुल उल्टे हो गये। अधिकांश मेघवाल पत्थर की खानों में सिर्फ मजदूर बन कर रह गये हैं।
जिस दलित व्यक्ति की भुजाओं पर आज जोधपुर का विशाल किला खड़ा हैं वह अभागा आज भी उचित सम्मान की बाट जोह रहा है़। किसी अछूत शहीद के अपमान का इससे बड़ा उदाहरण और कहां मिलेगा। जहाँ राजा महाराजाओं के दाह संस्कार स्थल भी विशाल स्मारकों के रूप में बनाये गये हैं, लेकिन किले के अजेय व खजाने को भरे रखने के अंधविश्वास के कारण जिस राजाराम की बलि दी गई उस पहाड़ी पर फैले विशाल गगनचुंबी किले में स्मारक के रूप में एक गज जमीन भी नसीब नहीं हुई। इसकी एक मात्र वजह यह थी कि राजाराम एक अछूत समझी जाने वाली भाम्बी/मेघवाल जाति का था। यदि राजाराम क्षत्रिय जाति का होता तो उसके नाम पर भव्य स्मारक बनावाया जाता और उसके परिजनों को बड़ी-बड़ी जागीरें, सोने की मोहरें, बेशुमार धन दौलत आदि दिये जाते। लेकिन आज भी उनको सच्ची श्रद्धांजलि मिल पाना बेहद मुश्किल है आज ऐतिहासिक दिन है, कटु सत्य भी है !
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