"बेरोजगारों की आत्म व्यथा" आशाराम मीना की नई कविता
नौकरी की आस लगाके शहर की ओर चलता है।
पांच फुट के कमरे में आसन अपना लगाता है।।
मन की आशाओं में वह किताबी रंग भरता है।
तुमको पता है बेरोजगार क्या-क्या दंब सहता है।।
जमीन अपनी बेचकर कोचिंग की फीस भरता है।
नई वैकेंसी आने की आशा में सांसे वो गिनता है।।
छूट न जाए कोई विषय दिन रात किताबे रटता हैं।
तुमको पता है बेरोजगार क्या-क्या दंब सहता है।।
नई उमंग से फॉर्म भर सबको विश्वास दिलाता है।
अबकी बार चयन होगा मां को यूं समझाता है।।
सपने सारे टूटे जब पेपर बाजार में बिक जाता हैं।।
तुमको पता है बेरोजगार क्या-क्या दंब सहता है।।
रिट निरस्त होने से नई उम्मीदें टूट गई।
नव दुल्हन दूल्हे की फेरों में ही रूठ गई।।
भूखे रह गए बाराती सगे संबंधी पकड़े माथा।
तुमको पता है बेरोजगार क्या क्या दंब सहता है।।
लेखक: आशाराम मीणा, उप प्रबंधक भारतीय स्टेट बैंक कोटा राजस्थान
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